गुरुवार, 10 सितंबर 2009

आखिर क्‍या मिलता है

'आप थोड़ा सा पीछे हो जाइए ।'

'मैं कोई आपको धक्‍का तो नहीं मार रहा ।'

तो भी अगर थोड़ा उधर हो जाएंगे तो क्‍या हो जाएगा ।'

खड़ी रहो न, जोर की बोल के क्‍या मुझे यहां से हटा दोगी ।'

'अरे, यह क्‍या तरीका है लेडिज से बात करने का, कोई घर में बेटी, बहू तो होगी, उनसे भी इस तरह से बात करते हो क्‍या'

'तेरे घर में भी तो बाप होगा मेरी उम्र का ।'
और पागलों की तरह अन्‍य सवारियां हो-हो करके हसने लगती हैं ।

फिर पता नहीं, थोड़ी देर तक और बहस होती रही, लेकिन मेरे कान अब उस तरफ नहीं, उस आदमी के वाक्‍य की तरफ चला गया और उससे भी ज्‍यादा मुझे यह बात सोचने पर मजबूर कर रही थी कि आखिर अन्‍य सवारियों को हंसी क्‍यों आई । कोई कुछ भी सोच सकता है और कोई कुछ भी बोल सकता है, लेकिन इस बात पर लोग इतनी जोर कि हंस पड़े, यह वास्‍तव में हैरानी की बात है, क्‍या यही है दिल्‍ली मेट्रो का कल्‍चर ।

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