बात आज की भी है और 26 जनवरी से पहले भी ऐसा ही कुछ मैंने देखा है। वैसे तो दिल्ली मेट्रो में यात्रा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि मेट्रो स्टेशन के मुख्य दरवाजों के बाहर भिखारी खड़े रहते हैं, देखकर किसी को भी अच्छा नहीं लगता होगा, कम से कम मुझे तो नहीं। इससे एक तो यात्रियों में असुरक्षा की भावना आ जाती है और दूसरे दिल्ली को विश्वश्रेणी का शहर बनाने की बात में सबसे बड़ा धब्बा भी है। अब पता नहीं दिल्ली सरकार या मेट्रो के बड़े अधिकारी इस बारे में क्या सोचते हैं।
एक और बात जो अचंभित करती है, मैं उसका वर्णन भी यहां कर रहा हूं। जहां तक 26 जनवरी पर सुरक्षा गतिविधियों की बात है, प्रत्येक नागरिक ने इसमें मेट्रो के लिए तैनात सीआईएसएफ का सहयोग किया, उसके लिए चाहे आधा-आधा घंटा लाईन में खड़े होना पड़ा और वो भी खुले में। बात 23 जनवरी की शाम की है, जब कार्ड का प्रयोग कर मैं बाहर आ रहा था तो क्या देखता हूं कि कुछ छोटे बच्चे (निश्चित रूप से भिखारी) बिना टोकन के अंदर घुस आए हैं और वो आगे यात्रा भी करेंगे, ऐसा लग रहा था। एक ओर तो यात्रीगण लाईन से आ रहे थे, दूसरी ओर इस तरह से चार-पांच बच्चे अंदर घुस गए और वो भी सीआईएसएफ वालों के सामने शोर मचाते हुए। बाहर आकर मैंने एक सीआईएसएफ जवान से कहा कि देखिए यह गलत हो रहा है, यह बच्चे इस तरह से झुक कर अंदर चले गए हैं, आप इन्हें रोकते नहीं क्या। उस जवान ने जो जवाब दिया वो जवाब नहीं बल्कि मेरे से सवाल था कि तो क्या बच्चों को मारें ?
इस पर मैंने उन्हें कहा कि मारने को कौन कह रहा है, लेकिन यही बच्चे और जो भिखारी दरवाजों पर नीचे खड़े रहते हैं, यही टारगेट होते हैं ऐसे मौकों पर, उसने बात अनसुनी कर दी। मेरे साथ ही एक और महिला ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह बच्चे जिस तरह से यहां पर आ-जा रहे हैं तो है तो यह गलत ही ना, लेकिन वो फिर उन्हें ही समझाने लगा, बच्चे हैं अभी चले जाएंगे। गोया कि मेट्रो स्टेशन कोई पिकनिक या खेलने-कूदने की जगह बन गई है।
अब आज मैंने उन्हीं बच्चों के एक झुंड को लिफ्ट में भी देखा, एक लड़का लिफ्ट में जाने लगा, लेकिन उन बच्चों को देखकर डरसा गया और बाहर आकर सीढि़यों से ही ऊपर चला गया।
सीधा सा प्रश्न है कि सीआईएसएफ और मेट्रो के अधिकारी-कर्मचारी क्या चाहते हैं, इस तरह से स्टेशनों के आस-पास रिक्शेवाले झगड़ते रहते हैं, भिखारी पांच-सात सीढि़यों तक आ जाते हैं, नशेड़ी लोग अलग यहां पर मंडराते रहते हैं, यह सब क्या है ? क्या इन लोगों से मेट्रो को कोई खतरा नहीं है या फिर बसों में जिस तरह से
गाने-बजाने वाले चढ़ जाते थे और यात्रियों को परेशान करते थे या फिर किताबें, पेन या और छोटी-मोटी चीजें बेचने चले आते थे, क्या उसी परंपरा को निभाने की तैयारी की जा रही है कि जाओ मेट्रो में जाकर भी इसी तरह का उत्पात मचाओ। इसे रोकना आवश्यक है, हादसे का इंतजार नहीं करना है।
एक और बात जो अचंभित करती है, मैं उसका वर्णन भी यहां कर रहा हूं। जहां तक 26 जनवरी पर सुरक्षा गतिविधियों की बात है, प्रत्येक नागरिक ने इसमें मेट्रो के लिए तैनात सीआईएसएफ का सहयोग किया, उसके लिए चाहे आधा-आधा घंटा लाईन में खड़े होना पड़ा और वो भी खुले में। बात 23 जनवरी की शाम की है, जब कार्ड का प्रयोग कर मैं बाहर आ रहा था तो क्या देखता हूं कि कुछ छोटे बच्चे (निश्चित रूप से भिखारी) बिना टोकन के अंदर घुस आए हैं और वो आगे यात्रा भी करेंगे, ऐसा लग रहा था। एक ओर तो यात्रीगण लाईन से आ रहे थे, दूसरी ओर इस तरह से चार-पांच बच्चे अंदर घुस गए और वो भी सीआईएसएफ वालों के सामने शोर मचाते हुए। बाहर आकर मैंने एक सीआईएसएफ जवान से कहा कि देखिए यह गलत हो रहा है, यह बच्चे इस तरह से झुक कर अंदर चले गए हैं, आप इन्हें रोकते नहीं क्या। उस जवान ने जो जवाब दिया वो जवाब नहीं बल्कि मेरे से सवाल था कि तो क्या बच्चों को मारें ?
इस पर मैंने उन्हें कहा कि मारने को कौन कह रहा है, लेकिन यही बच्चे और जो भिखारी दरवाजों पर नीचे खड़े रहते हैं, यही टारगेट होते हैं ऐसे मौकों पर, उसने बात अनसुनी कर दी। मेरे साथ ही एक और महिला ने भी उन्हें समझाने की कोशिश की कि यह बच्चे जिस तरह से यहां पर आ-जा रहे हैं तो है तो यह गलत ही ना, लेकिन वो फिर उन्हें ही समझाने लगा, बच्चे हैं अभी चले जाएंगे। गोया कि मेट्रो स्टेशन कोई पिकनिक या खेलने-कूदने की जगह बन गई है।
अब आज मैंने उन्हीं बच्चों के एक झुंड को लिफ्ट में भी देखा, एक लड़का लिफ्ट में जाने लगा, लेकिन उन बच्चों को देखकर डरसा गया और बाहर आकर सीढि़यों से ही ऊपर चला गया।
सीधा सा प्रश्न है कि सीआईएसएफ और मेट्रो के अधिकारी-कर्मचारी क्या चाहते हैं, इस तरह से स्टेशनों के आस-पास रिक्शेवाले झगड़ते रहते हैं, भिखारी पांच-सात सीढि़यों तक आ जाते हैं, नशेड़ी लोग अलग यहां पर मंडराते रहते हैं, यह सब क्या है ? क्या इन लोगों से मेट्रो को कोई खतरा नहीं है या फिर बसों में जिस तरह से
गाने-बजाने वाले चढ़ जाते थे और यात्रियों को परेशान करते थे या फिर किताबें, पेन या और छोटी-मोटी चीजें बेचने चले आते थे, क्या उसी परंपरा को निभाने की तैयारी की जा रही है कि जाओ मेट्रो में जाकर भी इसी तरह का उत्पात मचाओ। इसे रोकना आवश्यक है, हादसे का इंतजार नहीं करना है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें